23 वर्षीय रूबी ट्रांसजेंडर समुदाय से सम्बन्ध रखती हैं। हाल ही में रूबी ने दिल्ली के नामचीन कॉलेज में दाख़िला लिया, लेकिन परिस्थितियाँ उनकी अपेक्षा के अनुरूप नहीं मिलीं।
“मैंने बहुत कठिन प्रक्रिया से गुज़र कर दाखिला लिया। मगर एक हफ्ते के भीतर ही मुझे लगने लगा, कि मेरी वही ज़िन्दगी बेहतर थी, जो चारदीवारी में गुज़र रही थी। कॉलेज में स्टूडेंट्स के साथ-साथ टीचर्स का बर्ताव भी बहुत तकलीफदेह रहा। मैं डिप्रेशन की मरीज़ बन चुकी हूँ।” – रूबी (द वॉइसेस से बातचीत के दौरान)
सरकार व न्यायपालिका उदार लेकिन समाज नहीं
इस प्रकार की त्रासदी से गुज़रने वालों में रूबी अकेली नहीं हैं। 2018 में जस्टिस दीपक मिश्रा की अगुवाई में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा समलैंगिकता को अपराध के दायरे से बाहर कर दिया गया था। इस ऐतिहासिक फैसले के बावजूद LGBTQ समुदाय अपने वजूद को लेकर पसोपेश में है। नवंबर 2019 में संसद द्वारा पारित ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) विधेयक इस समुदाय के जीवन की गुणवत्ता बढ़ाने की कड़ी में लिया गया एक और साहसिक कदम था। परंतु क्या वास्तव में कई सौ साल पुरानी विचारधारा और रूढ़ियों को ऐसे प्रयासों की शृंखला से तोड़ा जा सकता है?
नवीनतम विधेयक के अनुसार शिक्षा और नौकरी के क्षेत्र में सरकारी शैक्षणिक संस्थाओं में, या सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त शैक्षणिक संस्थाओं के साथ सरकारी या प्राइवेट कंपनी में, ट्रांसजेंडर समुदाय के आवेदकों के साथ किसी तरह का कोई भेदभाव नहीं होगा।
अध्ययनों से यह पता चला है कि विद्यालय या कॉलेज में ट्रांसजेंडर समुदाय के दाखिले के लिये आवेदनों में वृद्धि हुई है। परंतु वास्तविकता से सामना होने पर कुछ ने अपने कदम पीछे हटा लिए और बहुतों ने दाखिले के एक हफ्ते के भीतर ही नाम वापस ले लिया। ऐसे में ट्रांसजेंडर समुदाय के लिये अध्ययन और रोज़गार के अवसर ढूंढ पाना चुनौतीपूर्ण हो गया है। हालांकि, हाल ही में सिनजेंटा नामक कंपनी की तरफ़ से एक उल्लेखनीय पहल की गई। इस कंपनी ने भारत में, इस समुदाय के पेशेवर लोगों से संबधित कुछ संस्थाओं के जरिए स्वास्थ्य बीमा देने का ऐलान किया है।
चिकित्सा सुविधा का लाभ लेने में हिचकिचाहट
चिकित्सा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में सरकार ने इस समुदाय के लिए हर अस्पताल में एचआईवी परीक्षण केंद्र का प्रावधान किया है। सेक्स पुनर्निर्धारण (रिअसाइनमेंट) की प्रक्रिया में सरकार ने हर संभव मदद का आश्वासन भी दिया है। अक्तूबर 2020 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने भारत सरकार को इस समुदाय के लिए एक विशेष 24*7 हेल्पलाइन नंबर का सुझाव भी दिया। मानवाधिकार आयोग सुझाव था कि इस नंबर के माध्यम से, ट्रांसजेडर समुदाय को हिंसा, उत्पीड़न, मानसिक स्वास्थ्य संबंधी मामलों में मदद उपलब्ध कराई जाए।
परंतु वास्तविकता अभी उपरोक्त सुझावों से दूर है, बिल पास होने के दो वर्ष बाद भी अस्पताल में स्थिति ट्रांसजेंडर समुदाय के अनुकूल नहीं है। सरकारी अस्पताल में सामान्य लोगों का ही इलाज बहुत मुश्किल से हो पाता है, फिर विशेष समुदाय के लोगों का इलाज और उनके लिये सहानुभूति की आशा कैसे की जाए।
21 वर्षीय समलैंगिक प्रथम, अपने साथी सनी के साथ दिल्ली के एक सरकारी अस्पताल में अपना एचआईवी टेस्ट करवाने गया था। प्रथम ने बताया- “डॉक्टर ने इलाज पर ध्यान न देते हुए, हम दोनों के रिश्ते के बारे में बातचीत करने पर अधिक रुचि दिखाई।”
प्रथम का कहना था कि चिकित्सकों का व्यवहार तिरस्कारपूर्ण था, यहाँ तक कि एक महिला चिकित्सक ने बड़े बुरे लहजे में दोनों के संबंधों के बारे में बात की। महिला चिकित्सक द्वारा जिन शब्दों का प्रयोग किया गया, वो बेहद अपमानजनक और आहत करने वाला था, इसलिये वे जांच करवाए बगैर लौट गये। ऐसे और भी लोग होंगे जो उपरोक्त परिस्थितियों में न पड़ना पड़े, इसलिये अस्पताल जाने से कतराते हैं।
हमसफर ट्रस्ट द्वारा इसी समुदाय विशेष के एचआईवी मरीजों के लिए मुंबई में चिकित्सा केंद्र स्थापित किया गया है। इस अस्पताल के आंकड़ों के मुताबिक लगभग 30 से 40 प्रतिशत लोग अपना इलाज पूरा नहीं करवा पाते। विशेषज्ञों का मानना है कि कोरोना काल में समुदाय की आवश्यकताओं की अनदेखी ने अब तक के प्रयासों को धक्का पहुँचाया है। इंडिया राइट्स नेटवर्क के मनीष चंद का कहना है- “कोरोना काल में यह समुदाय भयानक भुखमरी और गरीबी की चपेट में आ गया।”
सामाजिक स्तर पर भी वैवाहिक मान्यता किसी भी समुदाय की पहचान का अहम हिस्सा होती है। परंतु भारत में समलैंगिक विवाह को पूर्ण रूप से लागू करने का मामला अभी तक कोर्ट में अटका हुआ है।
इस मामले में केंद्र सरकार को जारी किए गए नोटिस में, दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा है कि ये कोई सामान्य याचिका नहीं है। ऐसे में क्योंकि ये अधिकारों का सवाल है केंद्र सरकार के प्रतिनिधि इसे गंभीरता से लें, और इसपर बिना विलंब के हलफ़नामा दायर करें
वहीं सुनवाई के दौरान रजिस्ट्रार के वकील ने कहा- “सनातन धर्म के पांच हजार साल के इतिहास में इस प्रकार का मामला नहीं आया है। तो इस विषय को मंज़ूरी देना एक बहुत कठिन कार्य हो सकता है”।
हाई कोर्ट के आग्रह पर दायर किए गए हलफ़नामे में केंद्र ने समलैंगिक विवाह को आधिकारिक मान्यता देने के विरुद्ध अपने विचार प्रस्तुत किए हैं । अब देखना ये होगा कि इसके उपरांत भी समलैंगिक समुदाय किस तरह अपनी राह का संधान कर पाता है। फिलहाल इस समुदाय के लिए स्थितियाँ और संघर्षपूर्ण बनती नज़र आ रही है। निश्चित ही राज्य सरकार और समाज द्वारा इनके लिये कुछ कदम उठाए गए हैं परंतु सफर अभी बाकी है…