NFHS- 2019 2020 में कई राज्यों के आंकड़े उत्साहवर्धक अवश्य हैं परंतु कई राज्यों में स्थिति चिंताजनक बनी हुई है, जिसमें मासिक धर्म से संबंधित मिथकों के योगदान को नकारा नहीं जा सकता ।
हाल ही में भारत सरकार के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा जारी किए गए राष्ट्रीय परिवार सर्वेक्षण 5 (NFHS 5) में महावारी अपशिष्ट निबटान और स्वच्छता पर आधारित आंकड़े गौर करने योग्य हैं। सर्वेक्षण के अनुसार भारत के शहरी और ग्रामीण इलाकों में महावारी प्रबंधन के सुरक्षित विकल्पों के प्रयोग में 10% का अंतर है। जहां भारत के शहरी क्षेत्रों में 89.51% महिलाएं महावारी प्रबंधन के सुरक्षित विकल्पों का प्रयोग करती हैं, वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में ये संख्या घटकर 79.98% हो जाती है।
आंकड़ो के अनुसार बिहार और गुजरात की स्तिथि चिंताजनक बनी हुई है। जहां गुजरात में 65% ग्रामीण महिलाएं माहवारी स्वछता को लेकर सचेत हैं, वहीं बिहार में 57.8% महिलाएं ही माहवारी के दिनों में स्वच्छता का ध्यान रखती हैं।
मासिक धर्म के अपशिष्ट निपटान में स्वच्छता के निर्वहन में अंडमान निकोबार सबसे आगे है। यहां 98.9 प्रतिशत महिलाएं अपशिष्ट निपटान के लिए सुरक्षित विकल्पों का प्रयोग करती हैं। राज्यों की श्रेणी में गोवा, केरल, तेलंगाना, हिमाचल प्रदेश और मिजोरम का प्रदर्शन अग्रणी रहा है।
परंतु इन आंकड़ों के पीछे की ज़मीनी हकीकत की पड़ताल दी वॉयसेस ने की।
दिल्ली की जमीला आर्थिक संकट और परिवारिक उपेक्षा के कारण महावारी प्रबंधन को सुनिश्चित नहीं कर सकतीं। वह दी वॉइसेस को बताती हैं “मेरे पास पहनने के लिए बस एक लंगोटी है। मेरे घर में पैसों की कमी की वजह से भरपेट भोजन तो मिल नहीं पाता तो हम अंदर पहनने वाले कपड़े कहां से लेंगे। पैड का तो कोई सवाल ही नहीं। मासिक धर्म के दिनों में मैं एक ही कपड़े में 5 से 7 दिन गुज़ारती हूं। अपनी लड़की के भविष्य को लेकर मैं चिंतित रहती हूं। मेरी लड़की की उम्र अभी 9 साल है। जब उसकी माहवारी शुरू होगी तो मैं उसको कैसे संभालूँगी। मेरी पेशाब की जगह पर बड़े-बड़े फोड़े हो जाते हैं जिसमें से दुर्गंध आती है। उन दिनों में मेरे शौहर मेरे पास आना तो दूर मेरे हाथ का बना खाना तक नहीं खाते।”
पारिवारिक उपेक्षा का प्रताड़ना में तब्दील होने का भाव रीता की आपबीती में भी दर्ज है। दिल्ली पटपड़गंज के जवाहर मोहल्ले की झुग्गी में रहने वाली रीता बताती हैं “मैं महीने के दिनों में अतिशय दर्द महसूस करती हूं और साथ ही पति और सास-ससुर की प्रताड़ना भी झेलती हूं। इससे अच्छा मैं गर्भ अवस्था में महसूस करती हूं क्योंकि तब मेरे महीना नहीं आता। मैं महीने के आने से इतना डर गई हूं कि मुझे अगर पूरे साल महीना ना आए और मैं गर्भवती रहूं तो मुझे कोई परेशानी नहीं।”
अक्सर परिवारों में महावारी संबंधित समस्याओं पर संवाद का अभाव देखा गया है। समाज का एक बड़ा हिस्सा इस पर बात करने से न केवल संकोच करता है बल्कि इससे संबंधित विषय पर स्पष्ट चर्चा को किसी पाप से कम नहीं आंकता।
दिल्ली की अंबिका जो दसवीं कक्षा की छात्रा हैं अपने अनुभव साझा करते हुए बताती हैं कि अपने घर में उनको महावारी से संबंधित कोई भी शब्द बोलने की आजादी नहीं है। इसको वो गुलाबी दोस्त के नाम से पुकारती हैं। विद्यालय में भी अपनी सहेलियों से इस पर स्पष्ट बातचीत नहीं कर पातीं। यहां तक कि मासिक धर्म के दिनों में उन्हें किचन में जाने की भी सख्त मनाही रहती है। ना तो वह किसी बर्तन को हाथ लगा सकती हैं और ना ही किसी खाने के सामान को छू सकती हैं। उनकी मां उनको अचार छूने के लिए मना करती हैं। उनकी मां का कहना है महामारी के समय यदि अंबिका अचार छुए या उस पर उसकी परछाई भी पड़ जाए तो अचार खराब हो जाता है। समाज में फैले हुए मिथकों के कारण महिला समुदाय का बड़ा हिस्सा महावारी के समय स्वच्छता प्रबंधन के उत्तम विकल्पों का लाभ नहीं उठा पाता। जागरूकता की कमी के कारण महिलाएं कई बार इन मिथकों के प्रभाव में खतरनाक जीवन शैली का अनुसरण करती हैं जिस कारण उन्हें गंभीर बीमारियों का भी सामना करना पड़ता है।
महावारी से संबंधित ये मिथक गहरी और असाधारण वर्जनाओं को जन्म देते हैं। ग्रामीण इलाकों की महिलाओं ने दी वॉइस से सीधे तौर पर बात न करते हुए महज़ इतना बताया कि घर में बड़े पुरुषों के सामने यहां तक कि अपने पति के सामने भी उनको इस विषय पर बोलने की इजाज़त नहीं।
इस पर बात करने हेतु भाषा में कोड वर्ड्स (सांकेतिक शब्दों) का अक्सर प्रयोग होता है। संयुक्त परिवार में रहने वाली शहरी औरतें इसे अक्सर लाल चींटी कहकर संबोधित करती हैं। मासिक धर्म के पहले दिन घर की वरिष्ठ महिला सदस्य को उन्हें यह बताना होता है कि उन्हें लाल चींटी ने काट लिया।
दी वॉइसेस ने अपनी पड़ताल में पाया कि अपर प्राइमरी कक्षा की लड़कियां इसे बर्थडे का आगमन कहकर संबोधित करती हैं। वहीं कॉलेज की लड़कियों के बीच ‘टॉम टाइम ऑफ मंथ’ अत्यधिक प्रचलित है।
12वीं कक्षा की छात्रा इलमा खान बताती हैं कि 12 या 13 वर्ष की आयु में वह स्कूल के बाद अपनी धार्मिक शिक्षा लेने के लिए नज़दीकी मदरसे में जाया करती थीं। जब उनके पीरियड शुरू हुए तो उनको मदरसे जाना छुड़वा दिया गया। वहीं उनका बाहर खेलना भी बंद हो चुका था। इलमा अपने उन दिनों की बात को याद करते हुए सिहर उठती हैं। वह बताती हैं कि उनके साथ ऐसा व्यवहार होने लगा था कि वह डिप्रेशन में चली गई थीं। उनके घर में आज भी उनके पीरियड के दौरान इस्तेमाल करने वाले बर्तन बिल्कुल अलग हैं। उनके लिए चादर भी अलग है। ओढ़ने और बिछाने के लिए उनको मैली और गंदी चादर दी जाती है।
महावारी संबंधी मिथक सामाजिक रूढ़ियों के रूप में जीवन शैली में घर कर चुके हैं। जिसके कारण महावारी प्रबंधन में गुणात्मक अभिवृद्धि में बाधा आती है। अचार और खाने के सामान का खराब हो जाना, मासिक धर्म के दौरान धार्मिक स्थलों पर जाने से और धार्मिक पुस्तक को छूने से उनका अपवित्र होना, महावारी के दौरान कुरमा घर अर्थात पीरियड हट में रहना ऐसे ही मिथकों की श्रृंखला का हिस्सा हैं। NFHS- 2019 2020 में कई राज्यों के आंकड़े उत्साहवर्धक आवश्यक हैं परंतु कई राज्यों में स्थितियाँ चिंताजनक बनी हुई हैं, जिसमें मासिक धर्म से संबंधित मिथकों के योगदान को नकारा नहीं जा सकता।
संपादक: एन के झा