पिछले कई वर्षों से समलैंगिक समाज अपने अधिकारों की कानूनी लड़ाई में उम्मीद के सूरज की लुका छिपी देखता रहा है। जनवरी में समलैंगिक विवाह के लिए आधिकारिक मान्यता की मांग करने वाली याचिकाओं पर बहस करते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को अपना पक्ष दायर करने के लिए अंतिम अवसर दिया था। उसी संदर्भ में 25 फरवरी 2021 को, केंद्र सरकार ने याचिकाओं का विरोध करते हुए एक हलफनामा दायर किया।
केंद्र ने अपने हलफनामे में दावा किया है कि समलैंगिक लोगों के बीच विवाह को एक निजी संबंध के रूप में मान्यता नहीं दी जा सकती क्योंकि विवाह, केंद्र के अनुसार, प्राकृतिक पुरुष (Biological Man) और प्राकृतिक स्त्री (Biological Woman) का ही बंधन है। केंद्र का कहना है कि “एक परिवार का निर्माण महज़ पति और पत्नी से ही संभव है। और विवाह की शर्तें एक संस्था के रूप में सदियों पुराने रीति-रिवाजों, प्रथाओं, सांस्कृतिक लोकाचार और सामाजिक मूल्यों से ही निर्धारित होती हैं। और भारतीय परिप्रेक्ष्य में समलैंगिक विवाह को आधिकारिक मान्यता देना इस सांस्कृतिक मूल्य व्यवस्था की अवमानना होगी।“`गौरतलब है कि 2018 में न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा की अगुवाई में सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक फैसले में समलैंगिकता को अपराध के दायरे से बाहर कर दिया था। इसके उपरांत समलैंगिक विवाह हेतु आधिकारिक मान्यता प्राप्त करने का विधिक संघर्ष शुरू हुआ। याचिकाकर्ताओं के लिए यह हलफ़नामा अत्यंत महत्व रखता था। 2018 के फैसले के उपरांत वह अत्यंत आशान्वित थे।
परंतु इस हलफ़नामे मे केंद्र ने एक प्रतिकूल रुख अख़्तियार करते हुए कहा कि पश्चिमी विधिक दर्शन के मूल्यों को भारतीय भूमि मे बिना मंथन ही आयातित नहीं किया जा सकता।
हालांकि याचिकाकर्ता कहते रहे हैं कि वो किसी विशेष राहत की मांग नहीं कर रहे हैं बल्कि वही मांग रहे हैं जो अत्यंत प्राकृतिक मानव अधिकार है। एक याचिकाकर्ता के वकील ने दिल्ली उच्च न्यायालय में साफ शब्दों में कहा था कि उनके मुवक्किल किसी भी तरह के धार्मिक या फिर प्रथागत कानूनों के तहत किसी राहत की मांग नहीं कर रहे बल्कि संविधान के तहत मूलभूत अधिकारों की याचना कर रहे हैं।
याचिकाओं में हिंदू विवाह एक्ट और स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत समलैंगिक विवाह को मान्यता देने के लिए एक अधिसूचना जारी करने का अनुरोध किया गया था, जिसकी स्वीकृति की संभावनाओं को इस हलफ़नामे के बाद धक्का लगा है।
समलैंगिक समुदाय से सम्बन्ध रखने वाले अर्पण, एक एक्टिविस्ट के तौर पर इस समुदाय के लिए काम करते हैं। केंद्र सरकार के हलफ़नामे के रुख पर उन्होंने अपनी निराशा ज़ाहिर की। “हमको यह जान कर खुशी हुई थी कि हम लोग भी अब सामान्य जीवन जी पाएंगे। डरते डरते और छुप कर जीने का समय खत्म हो गया। मगर केंद्र के इस हलफनामे के बाद हमें यह लग रहा है कि सफ़र अभी लम्बा है। सर्वोच्च न्यायालय के 2018 के फैसले के बाद हमारी अपेक्षाएं कुछ और ही थीं।”
मानव अधिकारों के वकील प्रवीण गोयल इसपर अपना पक्ष स्पष्ट करते हुए बताते हैं “अपने विचारों को व्यक्त करना सभी के लिए सामान्य है और किसी भी कानून को लागू या निरस्त करने का अधिकार सरकार और देश की न्यायिक व्यवस्था को है। इस हलफनामे को दोबारा से चुनौती देने के लिए समलैंगिक समुदाय अपनी अपील दायर कर सकता है।”
गौरतलब है कि इसी दौरान अमेरिकी संसद ने समानता अधिनियम (इक्विटी एक्ट) पारित करने के लिए मतदान किया। 2019 में भी अमेरिकी सदन द्वारा कानून पारित किया गया था लेकिन रिपब्लिकन के नेतृत्व वाले सीनेट में इसे पारित नहीं होने दिया गया। इस बार राष्ट्रपति बाइडेन ने इस विधेयक के समर्थन का संकेत दिया है। उन्होंने कहा “हम समाज में समानता का वातावरण चाहते हैं जिसका आधार न तो धार्मिक होगा और न ही लैंगिक। सभी को जीने का अधिकार है।“
पिक क्रेडिट: डेक्कन हेराल्ड
हालिया कानूनी घटनाक्रम से ये प्रतीत होता है कि भारत में अभी इस मामले पर कानूनी संघर्ष लम्बा चलने वाला है। बहरहाल इस मामले की अगली सुनवाई के लिए जस्टिस राजीव सहाय एंडला और अमित बंसल की डिवीजन बेंच ने 20 अप्रैल 2021 की तारीख निर्धारित की थी, परन्तु महामारी के चलते दिल्ली उच्च न्यायलय ने केवल अति आवश्यक मामलों पर ही सुनवाई का निर्णय लिया है। ऐसे में इस कानूनी संघर्ष के अगले पड़ाव हेतु इंतज़ार करना पड़ सकता है।
संपादक -एन.के. झा