Author: Vadini

रात की कालिख भोर चढ़े ना, पाँव डगमग उस ओर बढ़े ना। जो धूप ,छाँव पर पड़े भारी , उस धूप को, सूरज और गढ़े ना। मैं चाँद टटोलूँ भले रात भर, पर ख्वाब रात की, आँखों में गड़े ना। कंचन-कंचन हो जाए माटी, कंकड़ के सिरहाने तेरे पाँव पड़े ना। मैं मौत मिटा दूं,साँसो की हथेली से , जब तक ज़िंदगी ,अपनी लकीर कढ़े ना । धुंधली हो जाए काया जिसकी , आँखें ऐसा कोई ख्वाब पढ़े ना । हर नारी गंगा सी शीतल उजले , कोई ,माथे उसके कलंक मढ़े ना। – वादिनी यादव

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बिगड़ जाओ तमन्नाओं, इजाज़त दे रहा हूं…कब तक शरीफ बन कर , पिंजरे में कैद रहोगे?तुम मासूम हो, ये बता कर, क्या पा लिया है, तुमने?थोड़ी शरारत कर लो, शराफ़त के दायरे में!मैं ये नहीं कहती कि आवारगी अच्छी है…पर खुलकर सांस ले सके, वही सादगी अच्छी है !’वो’,जो तुझ पर लगा रहे हैं पहरा -ए -नजर…क्या उनकी हरकतें हैं, शराफत के दायरे में ? …

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