पिछले तीन महीने से अधिक समय से हसदेव अरण्य क्षेत्र में रहने वाले आदिवासी पेड़ों की कटाई के विरुद्ध आंदोलनरत हैं। कारण, सरकार द्वारा इस वन क्षेत्र के परसा ईस्ट केंते बासन के दूसरे चरण और परसा ब्लॉक में खनन करने की इजाजत दे दी गई थी। इस खनन के विरुद्ध हसदेव अरण्य के खनन क्षेत्र में आने वाले ग्रामीणों ने मोर्चा खोल लिया है। वे लगातार खनन के विरुद्ध आंदोलन कर रहे हैं।
ग्रामीणों का कहना है कि विकास की इस दौड़ में लाभ किसी को हो लेकिन नुकसान सिर्फ उन्हें उठाना पड़ेगा। खनन के कारण लाखों पेड़ काट दिए जाएंगे, उनका घर छिन जाएगा और आजीविका पर संकट उत्पन्न हो जाएगा।
छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा परसा खनन परियोजना के लिए 841.538 हेक्टेयर वन भूमि की स्वीकृति दी गई थी, यह खनन क्षेत्र आदिवासी भूमि पर है। पर्यावरण कार्यकर्ताओं का दावा है कि इसके लिए दो लाख से अधिक पेड़ों को काटना पड़ेगा। इस पर मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का कहना है कि खनन के लिए हसदेव अरण्य के लाखों नहीं बल्कि लगभग 8 हज़ार पेड़ कटेंगे। पेड़ों की संख्या जो भी हो मगर विशेषज्ञों का मानना है कि खनन और पेड़ों की कटाई से पर्यावरण और जैव विविधता को जो नुकसान पहुंचेगा उसकी भरपायी नहीं की जा सकेगी।
जल-जंगल-ज़मीन बचाने की ग्रामीणों के इस आंदोलन का परिणाम फिलहाल उनके पक्ष में झुक गया है। हसदेव के वन क्षेत्र में परसा, परसा पूर्व और केंते तीनों खदानों में खनन पर अनिश्चितकाल के लिए रोक लगा दी गई है। खनन के रुकने से यह तय है कि अब फिलहाल पेड़ों की कटाई नहीं होगी, हालांकि यह रोक स्थायी नहीं है।
खनन पर रोक लगाने के निर्णय के संबंध में सरगुजा जिला कलेक्टर संजीव झा ने कहा,
“परसा, परसा पूर्व और केंते बासन (पीईकेबी) का दूसरा चरण और केंते एक्सटेंशन कोयला खदान जो खदान शुरू होने से पहले विभिन्न चरणों में हैं, को आगामी आदेश तक के लिए रोक दिया गया है”
हसदेव बचाओ आंदोलन
छत्तीसगढ़ के तीन जिलों कोरबा, सरगुजा और सूरजपुर में, लगभग एक लाख सत्तर हज़ार हेक्टेयर क्षेत्र में फैला हसदेव अरण्य जैव विविधताओं वाला वन्य क्षेत्र है। 2009 में तत्कालीन सरकार ने इस समृद्ध वन्य क्षेत्र को संरक्षित करने के लिए नो-गो क्षेत्र घोषित कर खनन पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। उसके बावजूद केंद्र सरकार द्वारा यहाँ खदान आवंटित कर दिया गया। खनन के लिए वनविभाग द्वारा स्वीकृति प्रदान करने बाद से ही ग्रामीणों का आंदोलन शुरू हो गया। खनन और पेड़ों की कटाई के विरोध में बढ़ते-बढ़ते हसदेव बचाओ आंदोलन ने बड़ा रूप ले लिया है। ज़मीनी आंदोलन की गूंज आभासी दुनिया में भी चारों तरफ सुनाई देने लगी। ग्रामीण पेड़ों की इस कटाई का पुरज़ोर विरोध कर रहे हैं जो सदियों से इस जंगल का हिस्सा थे।
ग्रामीणों ने मीडिया को दिए एक साक्षात्कार में कहा था,
“हम दो महीने से अधिक समय से बैठे हैं, हम अपनी जगह, जमीन और जंगल नहीं देंगे। हम इसके बगैर नहीं रह सकते। भले हमारी जान चली जाए लेकिन इस जंगल को हम कटने नहीं देंगे।”
कोयला खनन और राज्य सरकार की भूमिका
छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के संयोजक और पर्यावरण कार्यकर्ता आलोक शुक्ला ने खनिज संसाधन विभाग के सचिव का एक पत्र फेसबुक के ज़रिए साझा किया है। इस पत्र के अनुसार छत्तीसगढ़ खनिज संसाधन विभाग के सचिव अंबलगन पी ने केंते एक्सटेंशन कोल ब्लॉक भूमि में कोयला खनन को लेकर आपत्ति जताई थी। इस पत्र में उन्होंने जैव एवं वनस्पति विधिधता, लेमरू प्रोजेक्ट, पर्यावरणीय संतुलन का उल्लेख करते हुए प्रस्तावित कार्यवाही पर आपत्ति दर्ज कराई थी। यह पत्र उन्होंने भारत सरकार के कोयला मंत्रालय को 19 जनवरी 2021 को लिखा। केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने जुलाई 2019 में परसा कोयला खदान को पर्यावरणीय मंजूरी प्रदान की थी।
कोयला खनन में राज्य सरकार की भूमिका पर प्रकाश डालते हुए बिलासपुर(छत्तीसगढ़) के अधिवक्ता और सामाजिक कार्यकर्ता सुदीप श्रीवास्तव ने एक साक्षात्कार में कहा–
“कोयला खनन में बड़ी भूमिका केंद्र सरकार की होती है, राज्य सरकार की भूमिका कहीं है, तो वन मंज़ूरी और भूमि अधिग्रहण में है। केंते ब्लॉक में खनन के लेकर राज्य सरकार ने आपत्ति जताई, उसके बाद बावजूद केंद्र सरकार ने खनन के लिए नोटिफिकेशन जारी कर दिया। राज्य सरकार इस नोटिफिकेशन को चुनौती दे सकती थी जो उसने नहीं किया”
गौरतलब है कि यहाँ से प्राप्त कोयले की आपूर्ति ‘राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड’ को की जाएगी। राजस्थान सरकार का कहना था कि खनन रुक गया तो कोयले की आपूर्ति रुक जाएगी और बिजली संकट उठ खड़ा होगा। अडानी समूह ‘एमडीओ (माइन डेवलपर और आपरेटर)’ के रूप में इससे जुड़ा है, यानि खनन का कार्य यहाँ अडानी समूह द्वारा किया जाना है।
खनन को लेकर पक्ष-विपक्ष
हाल ही में मीडिया से मुखातिब हो कर छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री ने सीधे शब्दों में कहा था-
“यह देश को तय करना है कि बिजली चाहिए या नहीं। बस इसमें नियमों का उल्लंघन नहीं होना चाहिए। कोयला वहीं है जहां पहाड़ और जंगल हैं। जंगलों को बचाने के लिए नीतियाँ बनी हैं।”
अधिवक्ता और सामाजिक कार्यकर्ता सुदीप श्रीवास्तव ने कोयले की उपलब्धता को लेकर एक साक्षात्कार में दावा किया था कि देश में कोयले के इतने भंडार हैं, जो मांग आज से तीन गुना भी बढ़ जाए तो तकरीबन 50 साल तक निर्बाध आपूर्ति की जा सकती है, इसके लिए घने जंगलों के नीचे उपलब्ध खदानों की ज़रूरत नहीं पड़ेगी।
छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के संयोजक और पर्यावरण कार्यकर्ता आलोक शुक्ला ने कोयले की ज़रूरत के संदर्भ में सोशल मीडिया के माध्यम से कहा,
“कोल इंडिया की 1040 एमटीपीए की उत्पादन क्षमता को स्वीकृति हासिल है, लेकिन सिर्फ 60 प्रतिशत क्षमता पर उत्पादन हो रहा है। हमारी वर्तमान कुल जरूरत सिर्फ 900 एमटीपीए है”
भूमि अधिग्रहण और ग्रामसभा की भूमिका
राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग ने पेसा अधिनियम 1996 का उल्लेख करते हुए अपने आधिकारिक ट्विटर हैंडल से 4 जून, 2022 को ट्वीट किया था
“अनुसूचित क्षेत्रों में भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास या पुनर्वास के लिए ग्राम सभा या पंचायत की मंजूरी अनिवार्य है।”
ग्रामवासियों का आरोप है कि फर्ज़ी ग्रामसभा के आधार पर खनन के लिए भूमि का अधिग्रहण किया गया है। इसके लिये उन्होंने पहले की डॉ. रमन सिंह के नेतृत्व वाली सरकार को दोषी ठहराया है, साथ ही उनका आरोप है कि वर्तमान सरकार भी इस मामले को गंभीरता से न लेकर उचित जांच नहीं करवा रही है।
हसदेव अरण्य में जैव विविधता को लेकर लोगों की चिंताएँ
पर्यावरण कार्यकर्ताओं की चिंता यह है कि पेड़ों के कटने के कारण जैव विविधता को बड़ा नुकसान पहुँचेगा, इससे वन्य जीवों के पर्यावास क्षेत्र में कमी आ जाएगी। हाथियों के संरक्षण हेतु छत्तीसगढ़ सरकार की महत्वाकांक्षी लेमरू परियोजना में हसदेव अरण्य का कुछ भाग भी आता है। भारतीय वन्य जीव संस्थान ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा था, अगर हसदेव अरण्य में खनन शुरू हो गया तो मानव और हाथियों के बीच टकराव बढ़ जाएगा। इस परिस्थिति को संभालना लगभग नामुमकिन हो जाएगा। भारतीय वन्य जीव संस्थान की रिपोर्ट के अनुसार यह क्षेत्र अचानकमार टाइगर रिजर्व, भोरमदेव वन्यजीव अभ्यारण और कान्हा टाइगर रिजर्व से भी जुड़ा हुआ है। राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण(NTCA) का कहना है कि हसदेव अरण्य के खनन क्षेत्र में बाघों की गतिविधियों के निशान मिले हैं।
बाघों की उपस्थिति से वनविभाग का इन्कार
राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण(NTCA) के जवाब में वन विभाग का यह कहना है कि यह क्षेत्र निकटतम बाघ कॉरिडोर से 78 किलोमीटर और लेमरु हाथी रिज़र्व से 2.2 किलोमीटर दूर है। वन मंडलाधिकारी, कोरबा की रिपोर्ट के हवाले से वन विभाग ने कहा कि पिछले तीन सालों में कोरबा वन मंडल में बाघ की मौजूदगी के कोई चिह्न नहीं मिले हैं। हाथी और बाघ कॉरिडोर से दूर होने के कारण इस क्षेत्र में खनन की मंजूरी के लिए अलग से राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण की अनुमति मांगने की जरूरत नहीं है।
क्या वनविभाग की अनुमति के बिना हुई पेड़ों की कटाई
विभिन्न अखबारों में छपी खबर के मुताबिक 31 मई को तकरीबन 60 पेड़ों की कटाई की गई है। इससे पहले अप्रैल महीने में भी 200 से अधिक पेड़ काट दिए गए थे। हालांकि वन विभाग ने केंद्र सरकार की एजेंसी राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (NTCA) को लिखित रूप से बताया है कि उस क्षेत्र में अभी पेड़ों की गिनती चल रही है। किसी को पेड़ काटने की अनुमति दी ही नहीं गई है। ऐसे में सवाल उठता है कि अगर वन विभाग से पेड़ों की कटाई की अनुमति नहीं मिली है तो किस आधार पर पेड़ों कटाई हुई?
यह आलेख लिखे जाने तक हसदेव बचाओ आंदोलन जारी था। पेड़ों की कटाई को रोकने के लिए ग्रामवासी जंगलों में जमे हुए थे, सोशल मीडिया में भी हसदेव बचाओ की गूंज जारी थी। फिलहाल हसदेव अरण्य को राहत मिल गई है, लेकिन ग्रामीण और पर्यावरण कार्यकर्ता पेड़ों की कटाई और खदान आबंटन रद्द होने तक किसी भी कीमत पर पीछे हटने को तैयार नहीं हैं।
संपादक: रघुजीत सिंह रंधावा