बचपन की बातें याद आती हैं जब दादी से ज़िद किया करते थे
आज भी याद है मुझे, जब कलकत्ता आती थी गर्मियों की छुट्टी में
और कहती ‘‘दादी, कहीं घुमाने ले चलो‘‘
दादी को अपने नन्हे और बड़े पोते पोतियों से बड़ा प्यार था
उनकी मांगों को पूरा करना वह अपने प्यार को जताना समझतीं
पर दादी को मेरी बड़ी बहन से ज़्यादा लगाव था
ना जाने मैंने ऐसा क्या किया था?
अब चलते हैं अपने घर लखनऊ।
दादी, जल्दी आना
दादी हमसे जब मन चाहे मिलने आ जातीं
और गर्मियों में मलिहाबाद के आम खातीं
चटपटे अचार के चटकारे लेतीं और बोलतीं ‘‘सुपर्णा, और अचार दो‘‘
सुपर्णा वह अपनी सबसे बड़ी बहू उर्फ़ मेरी मां को प्यार से पुकारतीं
एक दिन विद्यालय से घर वापसी के वक़्त मैंने एक लाल रंग की कुर्सी देखी
छोटी सी बच्चों वाली
मुझे बड़ी पसंद आई और मैंने मां से कहा ‘‘मां खरीद कर दिला दो ना‘‘
मां ने मेरी ना सुनी। बोली कि घर चलो पहले
उदासीन मैं घर पहुंची और खा कर सो गई
शाम को जब आंख खुली तब सामने उस लाल कुर्सी को रखा पाया
इतनी खुशी मानो मैं फूली न समाई
‘‘मां, मां मेरी पसंदीदा कुर्सी आप ले आईं ?‘‘
नहीं दादी लेकर्र आइं
खुशी के साथ एक सुकून मिला की दादी मुझे भी प्यार करती हैं
मेरी फ़रमाइशों का भी ख़याल रखती हैं
बात सिर्फ़ कुर्सी खरीदने की नहीं
बात थी उनके कभी ना बयान करने वाले प्यार की
पूरी शाम मैं उस कुर्सी को अपने साथ लेकर घूमी
मजाल किसी की कि वह बैठ जाए मेरी कुर्सी पर जो दादी ने दिलाई
आज भी वह कुर्सी घर पर मैंने संभाल कर रखी है
लखनऊ से कोलकाता
वह कुर्सी मेरे जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है
आज भी सब कुछ कितना स्पष्ट लगता है
आज भी दादी याद आती हैं और वह आंगन जहां बचपन में मैंने दादी के प्यार को महसूस किया…
4 Comments
So connectedness. I think the writer has very well showed the love bond with her grandmother and whosoever reads this, will also remember their connection with their grandparents. Soft and sweet snippet
Thank you 🙂
Zinia ji, appreciate your memories which you have described with much warmth and loved.
“Wah Lal Kursi’, happily made me retreat into my childhood days and now cherishing the same with a smile while reading your emotions connected with this.
Thank you.
I am glad it made you smile 🙂