बीते दिनों श्रीलंका के कस्टम अधिकारियों ने यूनाइटेड किंगडम से आया कचरा वापस भिजवा दिया है। श्रीलंकाई कस्टम विभाग के मुताबिक, वर्ष 2017 से 2019 के बीच, 3000 टन से ज्यादा कचरे की इस खेप को, 263 कंटेनरों में भरके यूके से भेजा गया था। इस कचरे को “प्रयोग किये गए गद्दे और कालीन” का लेबल देकर, ग़ैरकानूनी रूप से, श्रीलंकाई बंदरगाहों पर जमा किया गया। श्रीलंकाई अधिकारियों द्वारा जांच में यह भी पाया गया कि आयातक द्वारा 2017 और 2018 में द्वीप में लाए गए लगभग 180 टन कचरे को भारत और दुबई भेज दिया गया था।
विकसित देशों द्वारा अपने कचरे को आर्थिक रूप से कमज़ोर देशों में भेजे जाने का यह पहला मामला नहीं है। इससे पहले भी श्रीलंका ने ही 2020 में मेडिकल वेस्ट से भरे 21 कंटेनरों को वापिस किया था। उस समय, यूके की रीसाइकलिंग मंत्री रेबेका पॉव ने मामले का संज्ञान लेते हुए, दोषियों को दो साल तक के कारावास का आश्वासन दिया था। यूके की तत्कालीन सांसद रुथ जोंस ने लेट्स रीसायकल को दिए गए अपने साक्षात्कार में कहा था, “हमें अपने कचरे की ज़िम्मेदारी स्वयं उठानी होगी। इसे उन देशों में नहीं भेजा जा सकता जो आर्थिक रूप से कमज़ोर हैं और इसके सुरक्षित प्रबंधन और रीसाइकिलिंग की व्यवस्था नहीं कर सकते।” जोन्स ने कहा कि समूची उत्पादन व उपभोग संस्कृति में बदलाव लाने की आवश्यकता है जिससे कि समाज रीसाइकल्ड वस्तुओं के प्रयोग की आदत डाले।
यूरोपीय और अन्य विक्सित देशों की कचरे को अवैध रूप से निर्यात करने की ‘वेस्ट डंपिंग’ की प्रवृत्ति पर दक्षिण एशियाई और अफ़्रीकी देश लगातार प्रश्न उठाते रहे हैं। वर्ष 2020 में मलेशिया ने भी समृद्ध देशों से भेजे गए कचरे के 150 कंटेनरों को वापिस लौटाया था। 2019 में फिलीपींस ने भी अवैध रूप से कनाडा से आये कचरे की एक खेप को वापिस लौटाया। वर्षों तक चीन इस प्रकार की डंपिंग का मुख्य केंद्र था परन्तु 2018 में चीन द्वारा ऐसे कचरे के आयत पर रोक लगाने के बाद, डंपिंग के लिए दक्षिण एशिया में अन्य देशों को चिन्हित किया जाने लगा।
पर्यावरण विशेषज्ञों के अनुसार इस प्रकार की डंपिंग बेसल कन्वेंशन का उल्लंघन है। बेसल कन्वेंशन 1992 में लागू हुआ था। इसके तहत पर्यावरण संबंधी समस्याओं से निपटने व कचरे को सीमा पार निर्यात करने से रोकने के लिए समझौते पर हस्ताक्षर किया गया। वर्तमान में 199 से अधिक देश और संस्थाओं ने इसे अपनाया है।
सतत विकास का लक्ष्य क्रमांक – 3
विकसित देशों से विकासशील देशों की ओर कचरे का अवैध निर्यात पर्यावरणीय नस्लभेद (Environmental racism) की तरह दिखाई पड़ता है। ऐसी घटनाएँ सतत विकास (सस्टेनेबल विकास) के लक्ष्यों को हासिल करने की राह में एक रोड़ा हैं। यूनाइटेड नेशंस के सतत विकास का लक्ष्य क्रमांक 3 है – ‘विकासशील और अल्पविकसित क्षेत्रों में सभी आयु वर्ग के लोगों के लिए स्वस्थ जीवन सुनिश्चित करना और बेहतर जीवन स्तर को बढ़ावा देना।’ इसके तहत खतरनाक रसायनों और वायु, जल और मिट्टी के प्रदूषण और प्रदूषण से होने वाली मौतों और बीमारियों की संख्या को काबू करने की दिशा में लक्ष्य तय किए गए हैं। लेकिन, पर्यावरणीय नस्लभेद इसकी राह में एक बड़ी चुनौती है।
विश्व इकॉनोमिक फॉरम में प्रकाशित एक आलेख के मुताबिक विश्व भर में 80 प्रतिशत ई-वेस्ट एशियाई देशों को निर्यात किया जाता है। वेंकटेश मूर्ति और एस रामाकृष्णा के एक शोध के अनुसार चौंकाने वाला तथ्य यह भी है कि विश्व के दो तिहाई स्थानों पर कुल ई-वेस्ट का 20 प्रतिशत ही वैधानिक तरीके से रीसाइकिल किया जाता है।
क्या है पर्यावरणीय नस्लभेद (Environmental racism)?
साउथ डरबन औद्योगिक बेसिन के उदाहरण से पर्यावरणीय नस्लभेद को समझा जा सकता है। दक्षिण डरबन औद्योगिक बेसिन (एसडीबी), दक्षिण अफ्रीकी तटीय शहर का वह इलाका है जहाँ केमिकल और पेट्रोकेमिकल उद्योग स्थापित हैं। अश्वेत समुदायों को ज़बरदस्ती एसडीबी में प्रदूषित उद्योगों के पास लाकर बसाया गया है। स्थानीय अश्वेत समुदाय प्रदूषित जल, वायु और मिट्टी के कारण कमज़ोर स्वास्थ्य के साथ घातक बीमारियों के जोखिम के बीच रहते हैं।
पर्यावरण नीति निर्माण और पर्यावरण कानूनों और विनियमों के असमान प्रवर्तन के सापेक्ष 1982 में अफ्रीकी अमेरिकी नागरिक अधिकार नेता, डॉ. बेंजामिन चाविस ने पर्यावरणीय नस्लभेद को परिभाषित किया था। उनके अनुसार अश्वेत समुदाय को जानबूझकर प्रदूषित जगहों पर बसाना, जहाँ अस्वास्थ्यकर वातावरण के साथ-साथ संक्रमण का जोखिम भी हो, पर्यावरणीय नस्लभेद है।
हेलेन मिलेर ने इस अवधारणा को विस्तार देते हुए बताया कि पर्यावरणीय नस्लभेद औद्योगिक नीतियों और प्रथाओं के बीच व्याप्त प्रणालीगत नस्लवाद है जिसके तहत निम्न आयवर्ग और अश्वेत लोगों के साथ भेदभाव किया जाता है। उन्हें उच्च प्रदूषण वाले क्षेत्रों में बसाया जाता है या उनकी बस्तियों के आसपास कचरा डंप किया जाता है। यह परिस्थिति न केवल उनके लिए, बल्कि स्थानीय जैवीय विविधता और प्राकृतिक व्यस्वथा के समूचे अस्तित्व के लिए घातक सिद्ध होती है।
कानूनी जानकार अभिनव नारायण और पार्थ रमन की द टेलिग्राफ में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार संयुक्त राज्य अमेरिका में भी अधिकांश दूषित स्थलों के पास जो लोग रहते हैं वो निम्न-आय वर्ग वाले समुदाय हैं।
डंपिंग क्षेत्र के आसपास रहने वालों के लिए जोखिम
मुंबई के जनसंख्या विज्ञान के अंतर्राष्ट्रीय संस्थान के गणितीय जनांकिकी और सांख्यिकी विभाग के श्रीकांत सिंह और उनके साथियों ने मुंबई में खुले डंपिंग क्षेत्र और आसपास के समुदायों के लिए स्वास्थ्य के जोखिम पर एक अध्ययन किया था। इस अध्ययन के मुताबिक प्रदूषण के संपर्क में आने वाले लोगों में बीमारी की दर उनकी तुलना में काफी अधिक थी जो प्रदूषण के संपर्क में नहीं आए।
6 महीनों के आंकड़ों के आधार पर उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि प्रदूषण के संपर्क में आनेवाले तुलनात्मक रूप से सांस की बीमारी (12%), आंखों में संक्रमण (8%) और पेट की समस्या (7%) अधिक पाई गई। उपरोक्त आँकड़े एक भयावह चित्र प्रस्तुत करते हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि भारत, वियतनाम, फिलीपीन्स आदि विकासशील देश पर्यावरणीय नस्लभेद के खिलाफ लड़ने के लिए सुदृढ़ वैधानिक ढांचों का निर्माण कर रहे हैं। पर्यावरण नस्लभेद के विरुद्ध पूर्व मलेशियाई पर्यावरण मंत्री येओ बी यिन का यह बयान वैश्विक रुख की बानगी है – “मलेशिया विश्व के लिए एक डंपिंग ग्राउंड नहीं रहेगा। हम लड़ेंगे। हालंकि मलेशिया एक छोटा देश है परन्तु विकसित देशों द्वारा हम ठगे नहीं जाएँगे।”
संपादक: एन. के. झा