हिमाचल के तर्ज पर उत्तराखंड भू कानून की मांग को लेकर सोशल मीडिया पर चल रहा आंदोलन चर्चाओं में है। आंदोलन की अनुगूंज राजनीतिक गलियारों में भी सुनाई पड़ने लगी है। जहाँ एक ओर मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस, उत्तराखण्ड वाम दल, आम आदमी पार्टी भू कानून सुधार की मांग का पुरज़ोर समर्थन कर चुके हैं वहीँ सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी में इस मुद्दे पर एक आम राय नहीं बन पायी है। हाल ही में भाजपा के पूर्व प्रदेश मीडिया प्रभारी अजय अजेंद्र ने इस संबंध में एक विशेषज्ञ समिति बनाये जाने की मांग की। राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार आगामी विधानसभा चुनाव में इस आंदोलन का व्यापक प्रभाव देखा जा सकता है।
दी वॉइसेस ने उत्तराखंड भू कानून आंदोलन पर अपनी प्रस्तुति के पहले हिस्से में इसके ऐतिहासिक कारणों को टटोलते हुए, पिछले कुछ दशकों में भू कानून में आये वैधानिक संशोधनों की भी पड़ताल की। प्रस्तुति के दूसरे हिस्से में दी वॉइसेस ने आंदोलन पर ज़मीनी हवा को समझने हेतु विभिन्न पक्षों से इसपर राय ली।
देहरादून में रहने वाले सामाजिक कार्यकर्ता और भू अध्यादेश अधिनियम अभियान, उत्तराखंड के संस्थापक-संयोजक शंकर सागर के अनुसार राज्य में एक लम्बे समय से भू कानून की मांग रही है। मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी के नेतृत्व में राज्य की पहली अंतरिम सरकार द्वारा इस सम्बन्ध में कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया। राज्य बनने के उपरांत उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन और भूमि व्यवस्था सुधार अधिनियम 1950 को राज्य में लागू किया गया। एनडी तिवारी सरकार ने राज्य से बाहर के व्यक्तियों के लिए भूमि खरीद पर ५०० वर्ग मीटर की सीमा तय की, जिसे कालांतर में खंडूरी सरकार ने घटाकर 250 वर्ग मीटर कर दिया और 2018 में त्रिवेंद्र सिंह रावत की सरकार ने एक संशोधन अध्यादेश के माध्यम से पूर्णतः समाप्त ही कर दिया।
इस अध्यादेश के उपरांत आंदोलन में तेज़ी आयी। सामाजिक कार्यकर्ता शंकर सागर इस आंदोलन की पृष्ठभूमि में घरेलु, सुरक्षा, और पर्यावरण सम्बन्धी चिंताओं का ब्यौरा देते हैं। दी वॉइसेस को वो बताते हैं “फ़र्ज़ी कंपनियां विकास के नाम पर ज़मीन की खरीद में शामिल हैं और बाद में यही कंपनियां बिना किसी विशेष कार्य किये इस ज़मीन की प्लॉटिंग कर के बेच देती हैं। सुरक्षा के दृष्टिकोण से भी एक मज़बूत भू कानून की आवश्यकता है क्योंकि पिथौड़ागढ़ जैसे संवेदनशील जिले नेपाल और चीन दोनों से सीमा साझा करते हैं। और तमाम महत्वपूर्ण ग्लेशियर की उपस्थिति के कारण यह क्षेत्र पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील तो है ही।” हिमाचल भू कानून मॉडल का हवाला देते हुए शंकर सागर कहते हैं “अगर तमाम मजबूत प्रावधानों के बावजूद हिमाचल में विकास हो सकता है, तो यहाँ क्यों नहीं।”
उत्तराखंड की अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। परन्तु हालिया दिनों में न केवल कृषि क्षेत्र में गिरावट दर्ज की गयी है बल्कि कृषि के अंतर्गत क्षेत्र में भी भरी कमी देखी गयी है। शोध संस्थान पीआरएस ने मौजूदा वित्तीय वर्ष के राज्य बजट के अपने विश्लेषण में कृषि क्षेत्र के विकास दर में गिरावट की पुष्टि की। राज्य के गठन के समय जहाँ 7.70 लाख हेक्टेयर भूमि कृषि के अंतर्गत थी, वहां आज यह घटकर 6.48 लाख हेक्टेयर रह गयी है। ऐसे में भू आंदोलन के सम्बन्ध में किसानों की राय जानना भी आवश्यक हो जाता है।
उत्तराखंड के देहरादून जिले के चौकी धौलास गांव के किसान और पूर्व प्रधान अशोक नेगी बताते हैं “खेती की ज़मीन कम हो रही है। कुछ लोग मज़बूरी में और कुछ लोग प्रलोभन में ज़मीनें बेच कर पलायन कर चुके हैं। ऐसे में आय पर प्रभाव स्वाभाविक है। क्योंकि पहले जब खेती व्यापक स्तर पर होती थी तो जानवरों के लिए के लिए एक विस्तृत भू प्रदेश था विचरण के लिए। अब थोड़ी बहुत ही होती है और जानवर उस पूरे फसल पर आक्रमण कर देते हैं क्योंकि उनके विचरण क्षेत्र में तो कमर्शियल ढांचे खड़े हो गए हैं।” अशोक पहाड़ी क्षत्रों में बाहरी लोगों द्वारा ज़मीन की खरीद पर एक सख़्त सीमा की पैरवी करते हैं और हिमाचल मॉडल का ज़िक्र भी करते हैं।
मूलतः पहाड़ी राज्य होने के नाते उत्तराखंड की पहाड़ी क्षेत्र की महिलाओं के लिए भू कानून के अपने मायने हैं। गौरतलब है कि उत्तराखंड की अर्थव्यवस्था में अन्य राज्यों की तुलना में महिलाओं की प्रतिभागिता के आंकड़े उत्साहवर्धक हैं। जनगणना 2011 के आंकड़ों के अनुसार उत्तराखंड में ग्रामीण क्षेत्रों में 92 प्रतिशत महिलाऐं सेल्फ एम्प्लॉइड हैं जो की देश में सर्वाधिक है। ऐसे में भू कानून के सन्दर्भ में पहाड़ी महिलाओं के पक्ष को दरकिनार नहीं किया जा सकता।
चौकी धौलास गांव की पूर्व प्रधान अनीता नेगी के लिए भू कानून महिला सुरक्षा के क्षेत्र में आवश्यक पहल है। घरेलू पशुओं के लिए घास, खाना पकाने के लिए जलाऊ लकड़ी और अन्य उद्देश्यों से उनके जैसी अन्य महिलाएं जंगल पर अत्यधिक निर्भर हैं। भूमि पर अतिक्रमण से न केवल जंगल से घिरे क्षेत्रों पर कटाई का संकट है बल्कि वो अपने को अधिक असुरक्षित भी पाती हैं। अनीता दी वॉइसेस को बताती हैं “हमें सड़क किनारे दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ता है। बाहरी लोग आ गए हैं जो अभद्रता से बात करते हैं, और तरह तरह की ऐसी अमर्यादित गतिविधियां करते है जिसके कारण जंगल में निकलते हुए, घास काटने के लिए जाते हुए डर लगता है।” ऐसी गतिविधियों पर कानून का आश्रय लेने के बारे में अनीता बताती हैं कि मदद उपलब्ध हो सकती है परन्तु पहाड़ी क्षेत्र होने के नाते तत्काल किसी प्रकार की मदद मिलने में मुश्किल हो सकती है।
दी वॉइसेस की पड़ताल में इस आंदोलन की अंतर्वर्ती धारा के रूप में सांस्कृतिक असुरक्षा बोध का भी स्वर सामने आया। वहां के निवासी दिनेश कांडपाल बताते हैं “बाहर के लोगों के आने से न केवल पर्यावरण को नुकसान होगा, बल्कि यहाँ की संस्कृति को भी नुकसान हो सकता है। इसलिए आवश्यकता है कि किसी व्यक्तिविशेष द्वारा ज़मीन की बेहिसाब खरीद पर रोक लगयी जाये। इस मद में विशेषकर पहाड़ी इलाकों पर ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है।” दिनेश कांडपाल ने 2018 के संशोधन में उस विशेष प्रावधान (१४३(क)) पर भी चिंता ज़ाहिर की जिसके तहत पहाड़ में उद्योग हेतु कृषि भूमि बेचे जाने पर उसका भू उपयोग (land use) स्वतः बदल जायेगा, उसके लिए कोई विशेष प्रक्रिया नहीं अपनानी होगी।
उत्तराखंड में निवेश के सवाल पर दिनेश कांडपाल ने कहा कि “निवेश में कोई समस्या नहीं है लेकिन इन कारखानों को इन मूल निवासियों को रोजगार के अवसर भी उपलब्ध कराने चाहिए और पर्यावरण के प्रति संवदनशील रहना चाहिए।”
उत्तराखंड के एक अन्य मूल निवासी वरुण चंदोला पेशे से चार्टर्ड एकाउंटेंट है और वह भी वहां पर निवेश को लेकर अपनी चिंता ज़ाहिर करते हैं। उनके द्वारा सुझाया गया विकल्प मौजूदा वैधानिक संरचना से होकर ही गुज़रता है। उनके अनुसार पहाड़ों में निवेश की आवश्यकता है। उनके अनुसार निवेश पलायन की समास्या को रोकने में समर्थ विकल्प सिद्ध हो सकता है। उनके विचार में उत्तराखण्ड राज्य औद्योगिक विकास निगम लि॰ अपने स्तर पर भूमि का आवंटन करे और उस आवंटन के बाद भूमि उपयोग की प्रक्रिया पर कड़ी निगाह रखी जाये। अगर यह पाया जाये कि अपेक्षित कार्य उसपर नहीं हो रहा है तो खरीददार को कड़े प्रावधानों के तहत सजा दी जाये।
सत्ताधारी पार्टी – भाजपा के राष्ट्रीय मीडिया टीम के सदस्य सतीश लखेड़ा ने आंदोलन को एक जागरूकता अभियान बताया और सांस्कृतिक संरक्षण के दृष्टिकोण से इसे एक महत्वपूर्ण कदम बताया। वो बताते हैं “लॉकडाउन में यहाँ लौटने के बाद, मूल निवासियों को लग रहा है कि प्रदेश में बहार के लोगों का ज़मीनों पर अधिकार बढ़ गया है। मगर लोगों में अपनी संस्कृति के प्रति एक अलग ही संवेदनशीलता है; बाहरी का उससे सीधा सरोकार नहीं। पॉलीसी के दुरूपयोग को नाकारा नहीं जा सकता, क्योंकि अप्रशिक्षित लेबर के अतिरिक्त उनके पास बड़े स्तर पर बेहतर रोज़गार की संभावनाएं नहीं नज़र आ रहीं। ऐसे में जो मूल पहाड़ी निवासी है, जैसे बकरीवाले, जो हमारे सुरक्षा सन्दर्भों में भी महत्वपूर्ण है, वो किसी वैधानिक सहयोग के अभाव में अपने पुराने पेशे छोड़ने लगा है। इसीसलिए चकबन्दी हो और ज़मीन का पुनः आवंटन हो।” भविष्य की राह के सम्बन्ध में लखेड़ा जी ने बताया कि “यह मुद्दा अभी चर्चा में आया है, मीडिया कवरेज में आया है” और नश्चित ही एक वर्ग की चिंताओं को ध्यान में रखते हुए कोई सकारात्मक पहल अवश्य होगी।
भू कानून पर विभिन्न पक्षों की चिंताओं को मद्देनज़र रखते हुए दी वॉइसेस ने प्रशासनिक अधिकारीयों के पक्ष को जानने का प्रयास किया। खरीद के उपरांत ज़मीन के प्रयोग पर नज़र रखने हेतु तंत्र पर स्पष्टीकरण देते हुए भागेश्वर के जिला अधिकारी विनीत कुमार दी वॉइसेस को बताते हैं कि “महाप्रबंधक, जिला उद्योग केंद्र के पास इस संबंध में आंकड़े होते हैं।” विनीत कुमार के अनुसार अभी तक उनके संज्ञान में कोई ऐसा मामला नहीं आया है जहाँ ज़मीन जिस उद्देश्य से ली गयी हो, उसके अनुरूप उसका प्रयोग न किया गया हो। परन्तु उनका कहना है कि “ऐसा कोई मामला आता है तो उसपर उचित कानूनी कार्यवाई की जाएगी।”
उत्तराखंड के रानीखेत जिले के प्रभागीय न्यायाधीश (एसडीएम) गौरव पांडेय भी बताते हैं कि तमाम ज़मीनी खरीद फ़रोख़्त की प्रक्रिया यूपीजेडएएलआर एक्ट,1950 के प्रावधानों के तहत ही हो रही है। उन्होंने बताया की प्रभागीय प्रशासन पटवारी के माध्यम से समय समय पर पड़ताल करता रहता है। अन्य ज़मीनी समस्याओं का निवारण न्यायालयों में सक्षम धाराओं के तहत न्यायिक प्रक्रिया के माध्यम से कर दिया जाता है। उन्होंने अपने प्रखंड में ऐसे किसी मामले की जानकारी से इनकार किया जहाँ मूल निवासियों ने नए स्थापित उद्योगों द्वारा रोज़गार में भेदभाव की शिकायत की हो।
परंतु विशेषज्ञों की माने तो उत्तराखंड में भू कानून जिस बड़ी आवश्यकता का एक अंग है उसे भू बंदोबस्त कहा जा सकता है। एक व्यापक और सुनियोजित भूमि बंदोबस्त की परिधि के भीतर भू कानून की भी जगह स्वतः ही बन जाती है। राज्य में अंतिम भू बंदोबस्त 1960 के दशक में हुआ था जब यह अविभाजित उत्तर प्रदेश का हिस्सा था। इस सन्दर्भ में, उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग के प्राध्यापक गिरिजा पांडे, दी वॉइसेस को बताते हैं कि “महत्वपूर्ण सवाल महज़ ये नहीं कि भूमि पर मालिकाना हक़ किसका होगा , महत्वपूर्ण ये है कि भूमि कितनी है, किस प्रकार की है। भूमि की चकबंदी हो, भूमिहीनों को भूमि मिले, और ज़मीन पर सरकार और जनता के स्वामित्व का निर्धारण हो। इसके ग्राम पंचायतों को भी उनकी साझी संपत्ति का ज्ञान हो सकेगा।” गिरिजा पांडे के अनुसार मौजूदा स्थिति को देखते हुए यह भी बता पाना कठिन है कि कृषि के अंतर्गत भूमि कितनी है क्योंकि मैदानी और पर्वतीय इलाकों में मानक अलग हैं। इसीलिए भू सर्वेक्षण और उसके परिणाम के अनुसार दस्तावेज़ों को तैयार करना ही सफ़ल, सार्थक और जन आकांक्षा के अनुरूप भू कानून के लिए एक पुख़्ता ज़मीन तैयार करेगा।
संपादक: एन के झा
दी वॉइसेस ने उत्तराखंड भू कानून आंदोलन पर अपनी प्रस्तुति के पहले हिस्से में इसके ऐतिहासिक कारणों को टटोलते हुए, पिछले कुछ दशकों में भू कानून में आये वैधानिक संशोधनों की भी पड़ताल की। प्रस्तुति के दूसरे हिस्से में दी वॉइसेस ने आंदोलन पर ज़मीनी हवा को समझने हेतु विभिन्न पक्षों से इसपर राय ली।
शंकर सागर – संस्थापक-संयोजक, भू अध्यादेश अधिनियम अभियान, उत्तराखंड
अशोक नेगी – उत्तराखंड के देहरादून जिले के चौकी धौलास गांव के किसान और पूर्व प्रधान
अनीता नेगी – उत्तराखंड के देहरादून जिले के चौकी धौलास गांव के किसान और पूर्व प्रधान
दिनेश कांडपाल – निवासी, उत्तराखंड
विनीत चंदोला – सीए, निवासी, उत्तराखंड
सतीश लखेड़ा – सदस्य – भाजपा राष्ट्रीय मीडिया टीम
विनीत कुमार – डीएम, भागेश्वर, उत्तराखंड
गौरव पांडेय – एसडीएम, रानीखेत, उत्तराखंड
प्रो गिरिजा पांडेय – स्कूल ऑफ़ सोशल साइंस, उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय
प्रस्तुति: अरिता बनर्जी