भारत की स्वर कोकिला, लता मंगेशकर, अपने स्वरों के असीम वैभव को पीछे छोड़ व्योम में विलीन हो चलीं। 92 वर्ष की आयु में, आज सवेरे, मुंबई के ब्रीच कैंडी अस्पताल में स्वर साम्राज्ञी का निधन हुआ। सिनेमाई जगत के लिए लता मंगेशकर महज़ एक कलाकार नहीं थीं। उनके व्यक्तिगत जीवन के कई किस्से, उनके भीतर के मनुष्य की महानता का बयान है। एक ऐसा ही अध्याय हिंदी सिनेमा के ‘कोहिनूर’ दिलीप कुमार से जाकर जुड़ता है।
लता मंगेशकर दिलीप कुमार को अपना मुंहबोला भाई मानती थीं। रक्षा बंधन के अवसर पर कई दफा वह उनको राखी बांधने जाया करतीं। जीवन में एक मोड़ ऐसा आया भी जब दिलीप कुमार ने लता के लिए वकील बनने की ठानी। एक निजी चैनल को दिए साक्षात्कार में लता मंगेशकर ने बताया कि एक दफ़ा उन पर और उनके ‘दिलीप भईया’ पर एक निर्माता ने ब्लैक मनी लेने का आरोप लगाया। दिलीप साहब ने लता मंगेशकर को आश्वस्त किया और कहा कि वो कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाएंगे और ये केस स्वयं ही लड़ेंगे। और इस तरह हिंदी सिनेमा का कोहिनूर ‘स्वर कोकिला’ के लिए वकील बन बैठा। दिलीप साहब ने कोर्ट से एक महीने का वक्त मांगा और केस को बेहतर ढंग से लड़ने के लिए वकालत की कई किताबें भी पढ़ीं। अंततः वो केस लड़े भी और जीते भी।
यों तो लगभग एक ही दौर में फिल्मिस्तान से दिलीप कुमार और लता मंगेशकर ने अपने सिनेमाई सफर की शुरुआत की पर दोनों की पहली भेंट सन 1947 में एक लोकल ट्रैन में हुई थी। लता दी संगीत निर्देशक अनिल बिस्वास के साथ सफ़र कर रही थीं। अनिल से लता दी का परिचय प्राप्त करने बाद दिलीप कुमार ने उन्हें उर्दू और हिंदी ज़ुबान पर पकड़ मज़बूत करने की सलाह दी जिसके बाद उन्होंने उर्दू सीखना शुरू किया। इस सलाह के प्रति कृतज्ञ होकर, दिलीप कुमार की आत्मकथा ‘सब्सटांस एंड दी शैडोज़’ में लता लिखती हैं
“जैसे जैसे मैं उर्दू सीखती रही, मुझे और अधिक प्रशंसा मिलने लगी। अपनी पहली ही मुलाकात में दिलीप भाई ने अनायास ही निः संकोच भाव से मुझे एक तोहफा दे दिया था।”
दिलीप कुमार लता मंगेशकर के संगीत के मुखर प्रशंसकों में से एक थे। अपनी आत्मकथा ‘सब्सटांस एंड दी शैडोज़’ में वो लिखते हैं कि “मुझे वो दिन साफ़ साफ़ याद है जब 26 जनवरी 1963 को दिल्ली में 1962 के चीन युद्ध के शहीदों के लिए रखी गयी श्रद्धांजलि सभा में लता मंगेशकर ने ‘ऐ मेरे वतन के लोगों’ गाया था। वहां मौजूद पंडित नेहरू के साथ साथ हम सब रोये थे।”
लता मंगेशकर ने भी अपने मुंहबोले भाई के लिए बहुत गीतों में आवाज़ दी। उनका पहला फिल्मफेयर सम्मान भी उन्हें दिलीप कुमार की फिल्म मधुमती के गीत “आजा रे परदेसी” के लिए मिला।
परन्तु लता की आवाज़ अपने भाई के लिए तब भी गूंजी जब दिलीप साहब की आत्मा की पीड़ा ने उन्हें पुकारा। 26 जनवरी 1963 के उस ऐतिहासिक कार्यक्रम से एक दिन पहले, अशोका होटल में दिलीप साहब ने लता दी से आग्रह किया कि वो उनके लिए “अल्लाह तेरो नाम” गा दें। लता दी उनके आग्रह को स्वीकारा और बड़ी सहजता से उनको जाकर वह गीत सुनाया।
लन्दन की अकादमी में लता मंगेशकर के संगीत समारोह में उनका स्वागत करते हुए दिलीप साहब के शब्द आज भी याद किए जाते हैं।
“लता मंगेशकर, वो जिसका नाम, जिसकी इज़्ज़त, जिसका मान, जिसका वकार (प्रतिष्ठा) हिंदुस्तान का ही वकार नहीं है, इंसानियत का वकार है, संगीत का वकार है और जिसकी प्रतिष्ठा विश्वव्यापी है।”
लता दी ने अपना फिल्फेयर लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड भी दिलीप कुमार के हाथों लिया था। दिलीप कुमार का निधन पिछले वर्ष 7 जुलाई को हुआ था। उनके निधन पर अत्यंत भावुक होकर शोक जताते हुए लता मंगेशकर ने कहा था
“यूसुफ़ भाई आज अपनी छोटी सी बहन को छोड़कर चले गए, यूसुफ़ भाई क्या गए, एक युग का अंत हो गया। मुझे कुछ सूझ नहीं रहा। मैं बहुत दुखी हूँ, नि:शब्द हूँ। कई बातेंं कई यादें हमें देकर चले गए।”
आज सिनेमा जगत के ये दो धूमकेतु जब आकाश में अपना स्थान बना चुके हैं, धरती पर इनके किस्सों की आभा, कला की शोभा मानवीयता को समृद्ध करती रहेगी।
संपादक – शिज्जु शकूर