और नहीं आई अबके
वो पोटरी…
नहीं आये
पोखर के मखान
धातरिन का आचार
चरौड़ और खुमरौर के फूल…
ठेकुआ , मालपुआ
या निमकी…
हरे तीखी गंध वाले कागज़ी नीम्बू,
बघण्डी के दातून,
महकती खेरही,
बाजरे का आंटा ,
लाई और चूरमा,
देसी घी,
और नहीं आई
माँ के लिए सिंदूर की पुड़िया , सौंठ सुपारी
या किसी पूजा का चढ़ा हुआ फूल
और कोई बद्धी।
कौन बांधता अबके पोटरी
के कहाँ कोई धान फटकता
बाबूजी की राह देखता था इस बार।
बहुत थोड़े ही बचे हैं लोग गाँव में…
तब पोटरी आती
और उसमें बंधा चला आता
मेरा अपना पता , मेरी सड़क के लोग
और साथ ही एक पीड़ा प्रवासी होने की,
जो छलक उठती थी
उस पोटरी की गाठें खोलते
जिसको छुआ हो
मेरी बूढ़ी नानी के काँपते हाथों ने।
उसको बांधने की तैयारी में जुटी रही होगी
उसकी बड़ी पुतोहु ,
उसके पोते पोती।
और जुट जाता है पूरा समाज
उस पोटरी के पते वाले तक
अपना भी कुछ बांधने में।
कुछ दबकर बेटों से भी
मांग लेती थी
पोटरी के लिए।
दुबजिया , छे बजिया
समय का आभास कराती होंगी।
की डिबिया जलने से पहले
बंध जाये पोटरी।
एक उत्सव होता होगा
पोटरी का वहां से चलना
और मेरे देस आना।
उसके खुलते ही गूंजता है
एक गवई राग , किसी लोकगीत सा
मेरे देश में।
और हर उस घर में
जहाँ माँ बाँट कर आती थी
ठेकुआ, मालपुआ
पोखर के मखान…
और अपनी मिट्टी की कतरन।
किसी बच्चे सा
टूट पड़ता था
उस पोटरी पर
और आज टूट पड़ता हूँ
उसके अभाव में।
ब्रेिफकेस में दबी पड़ी है राख,
नहीं वो चाबी
उस पुराने ताले की
जिसे जड़ दिया गया है
सांकल चढ़ाने के बाद
उस आँगन के दरवाज़े पर
जहाँ से सब विदा हो लिए
उस पोटरी वाली के जाने पर।
पर अब भी
कहीं से आएगा कौआ ,
और वो बिल्ली, वो कूकुर,
चींटियों की वो पांत
जिन्हें पता है कि पोटरी वाली कहाँ
आँगन में आखरी बार
रख कर गयी थी
उनके मतलब की चीजें।
और लौट जायेंगे वे…
पर न जाने किस मतलब से
उस आँगन में पनपती रही है
बुढ़िया की रोपी गई तुलसी
और उसकी चौकी के चारों ओर
उसकी पूजा के फूलों का जंगल
जिसकी घास मैं पोटरी में भर लाऊंगा
अगर अब के जाना हुआ तो …
3 Comments
बहुत ही अद्भुत कविता है . मैं अभिभूत हो गया हूँ. पुराने दिनों की याद ताज़ा हो गयी है. दिल मे एक सिहरन सी आ जाती है उस वक्त के बारे में सोचकर जब हमारी नानी हमारे साथ नहीं होंगी। बुज़ुर्गों के साथ होने का एहसास ही अलग है
Everytime I read this poem, feel so much involved with the poet’s mood. Some unknown nostalgia draws me.
The unadulterated hindi words and the rustic picture displayed is a perfect match to the feelings poured our for the poet’s pure love for his grandmother. No riches carried in trendy handbags of today can ever compensate the love infused in those soiled ordinary Potri(s) used by our bygone generation.
Wish to read more such poems on rustic life from the poet.
वाकई में यह कविता दिल को छू जाती है यह हमारी दादी नानी के प्यार का एहसास और उनकी याद दिलाती है।