मौजूदा दौर में सामजिक जीवन की लैंगिक रूपरेखा ‘पुरुष’ और ‘महिला’ से आगे बढ़ चुकी है। अपनी सक्रियता और सहभागिता से एलजीबीटीक्यूआई+ समुदाय सामाजिक संरचना की परिभाषा को एक विस्तार देने में कामयाब रहा है। भारत में भी 6 सितम्बर 2018 को सुप्रीम कोर्ट ने धारा 377 को अपराध की श्रेणी से बाहर किया। इसके बाद एलजीबीटीक्यूआई+ समुदाय के अधिकारों पर परिचर्चाओं ने एक व्यापक रुख अख़्तियार किया। नवंबर 2019 में भारतीय संसद ने ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों की सुरक्षा) विधेयक भी पारित किया जिसके तहत ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक सशक्तीकरण के लिये एक कार्य प्रणाली की संरचना का प्रावधान किया गया।
ऐसे ही प्रगतिशील प्रयासों की श्रृंखला में भारत सरकार के सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय ने 2020 में समुदाय आधारित संगठनों की मदद से ट्रांसजेंडर समुदाय के लिए ‘गरिमा गृह’ खोले जाने की घोषणा की। वर्तमान में भारत में 12 शहरों में ये गरिमा गृह चालये जा रहे हैं। पिछले एक दशक में, एलजीबीटीक्यूआई+ लोगों ने भारत में विशेष रूप से बड़े शहरों में अधिक सहिष्णुता और स्वीकृति प्राप्त की है। लेकिन ग्रामीण इलाकों में इस सम्बन्ध में अभी भी समझ का निर्माण होना बांकी है। ऐसे में बिहार सरीखे राज्य में, जिसकी ग्रामीण आबादी राज्य की कुल आबादी का 88 प्रतिशत है, गरिमा गृह की स्थापना का निर्णय एक क्रन्तिकारी विचार से कम नहीं।
बिहार में पहला ‘गरिमा गृह’ पटना में खोला गया। इसकी स्थापना में भारत सरकार की सहयोगी रहीं भभुआ कैमूर से शुरू हुए एक सामुदायिक संगठन ‘दोस्ताना सफ़र’ की सचिव रेशमा प्रसाद। ‘गरिमा गृह’ की संकल्पना के सम्बन्ध में रेशमा प्रसाद बताती हैं, “यहाँ उनके रहने खाने की निःशुल्क व्यवस्था है और इस समुदाय के लिये जीविकोपार्जन के लिए विभिन्न कौशल आधारित (skill based) कार्यक्रम चलाये जाते हैं।”
रेशमा प्रसाद, जो कि भारत सरकार के राष्ट्रीय ट्रांसजेंडर परिषद् की सदस्या भी हैं, पिछले कई वर्षों से इस समुदाय के अधिकारों के लिए संघर्षरत हैं। गौरतलब है कि रेशमा प्रसाद ने ‘दोस्ताना सफ़र’ के माध्यम से ही देश के पहले ट्रांसजेंडर स्टार्टअप नाच बाजा डॉट कॉम की शुरुआत करने के लिए बिहार सरकार की स्टार्टअप नीति के तहत विशेष अनुदान भी प्राप्त किया था। इस स्टार्टअप के ज़रिये विभिन्न उत्सवों में सांस्कृतिक प्रतिभागिता के लिए सैंकड़ों ट्रांसजेंडर कलाकारों से सीधे संपर्क साधा जा सकता है। इसके अतिरिक्त दोस्ताना सफ़र ने बिहार में 13 स्वयं सहायता ट्रांसजेंडर समूहों की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली संस्था दोस्ताना सफर को 2012 में बिहार में प्रथम गे प्राइड परेड के आयोजन का भी श्रेय जाता है। वर्ष 2016 से 2019 तक बिहार में किन्नर महोत्सव का भी आयोजन किया।
बिहार में रेशमा प्रसाद ट्रांसजेंडर और अन्य लैंगिक विमर्शों की आवाज़ बन चुकीं हैं। 2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार बिहार में ट्रांसजेंडर्स समुदाय की आबादी 41 हज़ार के आस पास है। बिहार में इस समुदाय की साक्षरता दर 44.35% है, जो कि राष्ट्रीय औसत 56.07% से कम है। ऐसे में सामाजिक ताने बाने में बदलाव की नींव रखने में ‘दोस्ताना सफ़र’ और ‘गरिमा गृह’ सरीखे पहलों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण रही है।
इनकी सक्रियता से लैंगिक समानता की मंज़िलों के सफ़र में तेज़ी आयी है। पर इस सफ़र की अपनी एक कहानी है। इस संघर्षों का अपना एक राग है जिसको सुनकर ज़मीनी बदलाव की गति और समस्याओं को समझा जा सकता है। रेशमा प्रसाद कहती हैं, “बदलाव एकदम से क्रन्तिकारी नहीं हो सकते हैं; मानसिक परिवर्तन के लिए निरंतर कार्य करते रहना होता है”। इसी सफ़र की कहानी और लैंगिक विमर्श के विभिन्न आयामों को समझने के लिए दी वॉइसेस की मीतू सिंह ने रेशमा प्रसाद से बातचीत की। प्रस्तुत है यह साक्षात्कार:
साक्षात्कार: रेशमा प्रसाद
सदस्य: राष्ट्रीय ट्रांसजेंडर परिषद्
सचिव: दोस्ताना सफ़र (बिहार)
साक्षात्कारकर्ता: मीतू सिंह
संपादक: एन. के. झा