रात की कालिख भोर चढ़े ना,
पाँव डगमग उस ओर बढ़े ना।
जो धूप ,छाँव पर पड़े भारी ,
उस धूप को, सूरज और गढ़े ना।
मैं चाँद टटोलूँ भले रात भर,
पर ख्वाब रात की, आँखों में गड़े ना।
कंचन-कंचन हो जाए माटी,
कंकड़ के सिरहाने तेरे पाँव पड़े ना।
मैं मौत मिटा दूं,साँसो की हथेली से ,
जब तक ज़िंदगी ,अपनी लकीर कढ़े ना ।
धुंधली हो जाए काया जिसकी ,
आँखें ऐसा कोई ख्वाब पढ़े ना ।
हर नारी गंगा सी शीतल उजले ,
कोई ,माथे उसके कलंक मढ़े ना।
– वादिनी यादव